१) हे मातृभूमे, हे पुण्यभूमे, ये तरी कन्याएं- जिनका संवर्धन और संस्करण तूने किया है – वे तुझे वंदन करती है, हे वत्सले, मंगले, हिन्दुभूमे तेरे लिए हम स्वयं अपना जीवन समर्पण कर रही है। २) हे विश्वशक्ति, तुझे नमस्कार। इस महान् हिन्दु राष्ट्र का निर्माण तूने किया है। यह तेरी ही कृपा है कि हम इस दिव्य मार्ग का अवलंबन करने के लिए सुसज्जित होकर संगठिम हुई है। ३) जिस सतीत्व ने इस राष्ट्र को श्रेष्ठ बनाया है जिसके सामने समग्र विश्व नम्र होता है, उस आदर्श, पवित्र सतीत्व को हे अम्बे अपनी प्रिय कन्याओं को प्रदान करो। ४) दुराचार और दुर्वृत्तिओं का विध्वंस करनेवाली दिव्य शक्ति हमे प्रदान करे, तथा पिता, पुत्र, बंधु और पति इन सबको सुमार्ग पर चलने की प्रेरणा देने वाली दिव्य-शक्ति हमें प्रदान-करो। ५) हम सुशील, सुधीर, समर्थ और संगठिम बने, स्वधर्म और स्वमार्ग पर अत्याधिक श्रद्धा करें। हम भावी तेजस्वी राष्ट्र की कृतार्थ जननी बन सकें, यह आशीष दो। समिति की प्रार्थना राष्ट्र सेविका समिति प्रार्थना भारतीय नारी की आशा आकांक्षाओं की नितांत सुन्दर अभिव्यक्ति है। जीवन के प्रारंभसे ही प्रार्थना करने की मानवीय प्रवृत्ती रही है। जिन जीवनमूल्यों के कारण भारत गौरव शिखारका उच्च स्थान सम्मानपूर्वक प्राप्त कर सका उनको सुरक्षित, अबाधित रखने के लिए समुचित शक्ति (शारीरिक, मानसिक, अध्यात्मिक) प्राप्त करना आवश्यक है। मानवी प्रयत्नके साथ-साथ दैवी कृपा भी हो तो मणिकांचन योग कहा जायेगा। इसलिये अपने से श्रेष्ठ शक्ति के सम्मुख नम्रतापूर्वक अपनी मनोकामना व्यक्त करने में लाचारी नहीं क्यों कि वह श्रेष्ठ दैवी शक्ति हमारी मनीषा पूर्ण करेगी इसका हमें विश्वास है। अपनत्व का यह नाता शब्दों से प्रगट करना (सर्वथा) असम्भव है। प्रार्थना का उद्देश्य व्यक्ति विशेष के अनुसार भिन्न-भिन्न हो सकता है। कोई केवल तपस्या के लिये, कोई शक्ति के प्राप्ती के लिये, तो कोई सुखशांति के लिये प्रार्थना करता है। भक्तिभाव से की हुई प्रार्थना में समर्पणभाव भी रहता है। ऐसी प्रार्थना से व्यक्तिगत जीवनमें सुप्तशक्तियोंका विकास होकर जीवन तेजस्वी होगा ऐसा विश्वास रहता है। सभी धर्मो और पंथो में प्रार्थना का स्वतंत्र स्थान है। अपने इष्टदेवता के सम्मुख मन से अथवा भावूपर्ण शब्दों से उच्चारण करना ही प्रार्थना है। ध्येय का ध्रुवतारा सतत दृष्टि के सामने स्थिर रहने के लिये तथा वहाँ तक हमें पहुँचना ही है, इसका ध्यान रखने के लिये प्रार्थना आवश्यक है। समिती की प्रार्थना सामूहिक होती है। समाज की आशा आकांक्षाए केन्द्रित होनेपर निर्माण होनेवाली प्रचण्ड शक्ति परिस्थिती में आमुलाग्र परिवर्तन ला सकती है। सामुहिक प्रार्थना हमें व्यक्तित्व की संकुचित सीमा से समाष्टि के विशाल परिघि तक पहुंचाती है। हम सब एक है ऐसी अनुभूति निर्माण करनेका सामथ्र्य सामूहिक प्रार्थना मे है। मै से हमतक पहुँचने के लिये सामूहिक प्रार्थना नितान्त आवश्यक है। जो कुछ माँगना है वह सबके लिये, अपने समाज के लिये, अपने राष्ट्र के लिये। व्यक्तित्व की संकुचित सीमा से समष्टि की विशाल परिघि में प्रवेश करना इस कारण सुलभ होता है। ऐसे ही राष्ट्रीय प्रार्थना का उदय हुआ था। Greatest pleasure of the greatest number यह आधुनिक संकल्पना नही। हमारे पूर्वजोने ऋषि मुनियोंने बहुजन हिताय बहुजन सुखाय यही उद्दिष्ट सामने रखकर वैदिक काल में सामूहिक प्रार्थना की थी। प्रार्थना संस्कृतमें क्यों? प्रारंभ में समिती शाखाओं में मराठी भाषा में प्रार्थना बोली जाती थी। किन्तु समिति का प्रचास, विस्तार जब महाराष्ट्र से बाहर अन्य प्रांतो मे होने लगा तब सबको समझने वाली, मन में उत्साह तथा चेतना जगानेवाली पूरे भारत वर्ष में परिचित ऐसी संस्कृत भाषा में प्रार्थना लिखी गई। संस्कृत सुसंस्कारित लोगोंक भाषा है। वह अन्य भारतीय भाषाओंकी जननी होने के कारण भारत में मान्यताप्राप्त है। वह हमारे ज्ञानका भांडार है। उसको देववाणी या गीर्वाणवाणी भी कहा जाता है। भारत के सभी प्रांतों को एक सूत्र में ग्रथित कर उनमे सामंजस्य, एकात्मता, प्रेमभाव निर्माण करने का संस्कृत भाषा एक श्रेष्ठ माध्यम है। कार्य का अखिल भारतीय स्वरूप ध्यानमें रखते हुए समिति की प्रार्थना संस्कृत भाषा में लिखी गई। शाखा स्थानपर परम पवित्र भगवे ध्वजके सम्मुख नियमित रूपसे बोली जानेवाली प्रार्थना यह अपना मंत्र है। उससे हमें प्रेरणा मिलती है। मननात् त्रायते इति मन्त्रः। शब्दों को मंत्र का सामथ्र्य तभी प्राप्त होता है जब उनके शब्दों का अर्थ का चिंतन, मनन, निदिध्यास के लिये की हुई तपस्या सफल होती है। हर मंत्र का एक विशिष्ट तंत्र होता है। तंत्र याने आचरण के नियम। मंत्र व तंत्र के सामंजस्य से ही मंत्र सफल (सिद्ध) होता है। वह अपना सुरक्षा कवच होता है। इसलिये प्रार्थना के प्रत्येक शब्द का अर्थ समझ लेना, उसपर चिंतन करना, उसके अनुसार आचरण करना सभी सेविकाओं का आद्य कर्तव्य है। तपःपूत शब्दों का शुद्ध उच्चारण लाभदायी तथा अशुद्ध उच्चारण हानिकारक होता है। ‘दुष्टः शब्दो स्वरतो वर्णतो वा। मिथ्या प्रयुक्तः न तमर्थमाह। स वाग्वज्रोयजमानं हिनस्ति। यथेन्द्रशत्रुः स्वरतोऽपराधात।।' इस प्रसिद्धध उक्ति से यह स्पष्ट होता है की केवल शुद्ध उच्चारण ही पर्याप्त नही है, अर्थ भी समझना चाहिये। बिना अर्थ समझे मंत्र पठन करना बोझ ढोने जैसा है। ‘प्रार्थना' शब्द मे दो पद है। प्र-अर्थना। यह एक निवेदन है, परन्तु इसके पीछे तपस्या की शक्ति है। प्रार्थना में भक्ति के साथ-साथ समर्पण भावना होती है। आन्तरिक सुप्तशक्तिओंका विकास होकर जीवन तेजस्वी होता है। दैवी गुणों से युक्त तेजस्वी राष्ट्रशक्ति का निर्माण यह हमारी महती आकांक्षा है। वह प्रार्थना के प्रत्येक शब्द में प्रकट होती है। हम दैवी राष्ट्र के अनुचर है उसीके कारण संपूर्ण विश्व में सुखशान्ति का साम्राज्य आएगा ऐसा हमारा विश्वास है। प्रार्थना के अन्त में ‘भारत माता की जय' ऐसा बोलते है। ‘भारत हमारी माता है' यह संस्कार इससे दृढ होता है। मेरी माँ को कलंक लगेला ऐसा आचरण तथा व्यवहार नही करना चाहिये। ऐसा नैतिक भाव मनमें निर्माण होगा तब अनिर्बंध आचरण पर रोक लगेगी। १)अन्वय - हे मातभूः हे पुण्यभूः त्वया वर्धिताः संस्कृताः वयं त्वत्सुताः त्वाम नमामः। अये वत्सले, मंगले हिंदुभूमे, (वयं सर्वाः) स्वयं जीवितानि त्वाम् अर्पयामः। अर्थ - हे मातृभूमे, हे पुण्यभूमे भारतमाते, तूने ही पाली हुई संस्कारित की हुई हम तेरी कन्यायें तुझें वन्दन करते है। हे वत्सले, मंगले हिंदूभूमे हम स्वयं अपने जीवन तेरे चरणों में अर्पण करते है।।१।। २)अन्वय - नमो विश्वशक्त्यै नमः ते नमः ते। त्वया महत् हिन्दुराष्ट्रं निमितम्। तव एव प्रसादात् दिव्यमार्ग समालम्बितुं वयं अत्र समेत्य सज्जाः। अर्थ - हे विश्वशक्ति (आदिशक्ति) तूने ये महान हिन्दुराष्ट्र का निर्माण किया है। तुझे बार-बार प्रणाम। तेरी ही कृपासे हम सब दिव्य मार्ग का अवलंबन करने के लिये तैय्यार होकर यहाँ संघटित हुए है।।२।। ३)अन्वय - येन नः एतत् राष्ट्रं समुन्नामितं यस्य पुरतः समग्रं जगत् नम्रं (भवेत्) हे अम्ब, तद् आदर्शयुक्तं पवित्रं सतीत्वं (तव) प्रियाभ्यः सुताभ्यः प्रयच्छ। अर्थ - हे माँ जिससे सारा राष्ट्र उन्नत हुआ, जिस के सम्मुख सम्पूर्ण जगत् विनम्र हुआ ऐसा पवित्र सतीत्व तुम अपनी प्रिय कन्याओंको प्रदान करो।।३।। ४)अन्वय - हे मातृभूमे (त्वं) इह सुदिव्यां, दुराचार दुर्वृत्ति विध्वंसिनीम् पिता पुत्र भातृन् भतारं च एव सुमार्ग प्रति प्रेरयन्तीम् शक्तिम् अस्मासु समुत्पादय। अर्थ - हे मातृभूमे, हम सेविकाओं में दुराचार, दुवृत्तिओं का विध्वंस करनेवाली दिव्य शक्ति का आप निर्माण करें जिससे हम पिता, पुत्र, बन्धु तथा पती को सन्मार्गपर चलने की प्रेरणा दें सके। ५)अन्वय - वयं (सर्वाः) सुशीलाः, सुधीराः, समर्थाः (अत्र) समेताः। (अस्मभ्यं) स्वधर्मे, स्वमार्गे, परं श्रद्धया चलन्त्यः (तथाच) भावि तेजस्वी राष्ट्रस्य धन्याः जनन्यः भवेम इति आशिषं देहि। अर्थ - हे मातृभूमे, हम सुशील, सुधीर, समर्थ (चारित्र्यवती, धैर्यवती, बलवती) सेविकाएँ संगठित होकर भविष्य में इस तेजस्वी राष्ट्र की कृतार्थ माताएँ बने तथा अतीव श्रद्धासे अपने मार्गपर, स्वधर्मपर चलनेवाली बनें ऐसा आशिष आप हमें दें।।५।। प्रार्थना का आशय इस प्रकार का है - अपनी प्रार्थना का प्रारंभ मातृभूमि की वंदना से है। ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ‘। यह संस्कार हमें बचपन से ही मिलता था। अतएव हम राष्ट्ररूप में समर्थता से खडे थे। किन्तु आज व्यक्तिशः हम धर्म का पालन करते है परंतु धर्मसंरक्षण के लिये राष्ट्ररूप में खडा रहना पडता है यह बात हम अनेक शताब्दियों से भूल गये। इस विस्मृती के कारण हमारा समाज दुर्बल, स्वत्वहीन तथा दस्यवृत्तिवाला बन गया। व्यक्तिगत आदर्श तथा धर्मपालन उच्च, ध्येयवाद के पीछे सशक्त राष्ट्रभाव खडा होने पर ही राष्ट्र जीवित रहता है, तत्वज्ञान टिकता है। इसीलिये प्रथम मातभूमि को वन्दन किया है। मेरी मातृभूमी पुण्यभूमि भी है। जन्मदात्री माँ विशिष्ट समय के पश्चात् शिशु को स्तन्य देना बंद करती है परंतु यह मातृभूमि जीवन के अंतिम क्षणतक पोषण करती है। इतनाही नही तो जीवनांत पर भी अपने आंचल में प्रेम और क्षमा की यह मूर्ति है। वात्सल्य और क्षमा ऊपरी नही है अपितु अंतः प्रेरणा है। उसमें मांगल्य का भाव है। हमारी मातृभूमि का हिन्दुत्व ही एकमात्र स्वत्व है जिसके रक्षणार्थ हम यहाँ रहते है। इस हिन्दुभूमि को केवल हिन्दु ही पवित्र मानता है ऐसा नही तो चौदहवी शताब्दि में भारत में आया हुआ विदेशी प्रवासी लिखता है कि, It's dust is purer than air and its air is purer than purity itself. It's delightful plains resemble the gardens of paradise. If it is asserted that paradise is in India be not surprised, because paradise itself is not comparable to it. यहाँ का व्यक्ति नगांधिराज हिमालय को देवतात्मा मानता है। देवताओंको भी इस भूमि में मोक्षप्राप्ति के लिये जन्म लेना पडता है। ‘दुर्लभं भारते जन्म मानुष्यं तत्र दुर्लभम्।' इस प्रसिद्ध उक्तिसे सुचित होता है की जीवन के अंतिम सत्य की अनुभूती होने के लिए ऋषिमुनि महात्माओंने यही जन्म लिया है। जो-जो पवित्र, मंगलमय है वह सब यहाँ ही केन्द्रिभूत हुआ है। योगी अरविन्द कहते है कि, ‘यह भूमि केवल माटी नही, भौतिक पदार्थो से बना हुआ पुंज नही, तो वह है दिव्यत्व का साकार रूप।' अपनी मातृभूमि दैवी शक्ति की अभिव्यक्ति है। हमारे देश का प्रत्येक कण अपने पूर्वजों के त्याग, तपस्या, बलिदान से अनुप्राणित हुआ है। यह महानता, पवित्रता, तपःसाधना हमें पूर्वजों से विरासत से प्राप्त हुई है। हमने वह आत्मसात करनी है। ऐसी मातृभूमि ने हमें संवर्धित संस्कारित किया है। इन्ही संस्कारों से हमारा मन तथा बुद्धि विकसित हुई है। ऐसी तेरी कन्याएं संगठित होकर तुझे अभिवादन करती है। हमारी मातृभूमि वत्सलता का मूर्तिमंत प्रतिक है। मांगल्य इसके कण-कण में प्रकट होता है। ‘चरण पावन चल रहे थे, राम प्रभु और जानकी के। धूलिकण इस धरती के माँ, करे पुनीत मलिन तन मन।' यह हमारी आकांक्षा है। यह भूमी हिन्दुओंकी है। हिन्दुभूमि का नाम लेते ही ध्यान आता है। हिमालयात् समारभ्य यावदिन्दुसरोवरम्। तं देवनिर्मित देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते।। हिन्दु अर्थात् दैवी गुणों के लिए साधना करनेवाला, तेजस्वी, दुर्बलरक्षक, दुष्टनिर्दालक, धर्मनीतितत्व का प्रतिष्ठाता यह उसकी पहचान है। यहाँ के मूलनिवासी, राष्ट्रोत्थानार्थ सर्वत्याग करनेवाले, रक्षणार्थ लडनेवाले, उत्कर्ष के लिए प्रयत्नशील हिन्दु ही है। १)आसिन्धु सिन्धुपर्यंता यस्य भारत भूमिका । मातृभूः पितृभूश्चैव सवै हिन्दुरितिस्मृतः ।। हिंदूहृदयसम्राट स्वातंत्र्यवीर वि. दा. सावरकरजीने हिन्दु की यही पहचान दी है। हे हिन्दुभूमे, हम सेविकाएं तेरे चरणो पर अपना जीवन समर्पित करने का संकल्प प्रतिदिन दोहराते है। यह जीवन तेरे लिये ही है। इसका एक-एक क्षण तेरे ही सुख के लिये समर्पित है। यह समर्पण स्वेच्छापूर्वक, निरपेक्ष प्रेम तथा श्रद्धासे किया है। प्रलोभन या किसी दबावसे नही। इस समर्पण से हमारा जीवन कृतार्थ होगा ऐसी हमारी श्रद्धा है, यही हमारा परम सौभाग्य है। २)नमो विश्वशाक्त्यै -....... अब हम विश्वशक्ति को वंदन करते है। विश्वशक्ति (आदिशक्ति) से पहले मातृभूमि को वंदन क्यों? वास्तव में यह भूमी विराट विश्व का एक छोटासा भाग है। इस विराट विश्व का नियंत्रण करनेवाली एक शक्ति है वह जगज्जननी आदिशक्ति है जिसने यह विशाल हिन्दुराष्ट्र का निर्माण किया। राष्ट्र का अर्थ केवल भूखंड नही तो इतिहास, पंरपरा, संस्कृति आदि का समावेश राष्ट्र संकल्पना में होता है। इस राष्ट्र ने ‘कृष्णन्तो विश्वमार्य' का उद्घोष किया। विश्व को मानवता का पाठ पढाया। ऐसे महान राष्ट्र के हम घटक है। उसकी सेवा करने की प्रेरणा हमें प्राप्त हुई यह आदिशक्ति की असीम कृपा है उस शक्ति को हमारा प्रणाम। जिस विराट दिव्यशक्ति ने इस मातभूमि का निर्माण किया उस विश्वशक्ति को तो प्रथम वंदन करना हमारा कर्तव्य है। किन्तु मातृभूमि ने ही हमको इस विराट दिव्य आदिशक्ति का परिचय कराया है। मातृभूमि के पुजारी होने के कारण हमारी स्थिती इस प्रकार हो गई। ‘गुरु गोविन्द दोनो खडे काके लागू पाव। बलिहारी गुरू आपकी गोविन्द दियो बताय।।' वास्तव में गुरु और परमेश्वर दोनो सामने खडे होते हुए भक्त गुरु को प्रथम वन्दन करता है। क्योंकि परमेश्वर तक पहुँचाने का मार्ग गुरु ही दिखलाता है। इसी लिये गुरु को प्रथम वंदन। ऐसी ही हमारी धारणा है। मातृभूमि ने ही विश्वशक्ति तक जाने का मार्ग दिखाया है। इसीलिए मातृभूमि को प्रथम वंदन। हे विश्वशक्ति तेरी ही कृपा से हम सब संगठित होकर राष्ट्र भक्ति का प्रखर दिव्यमार्ग स्वीकारने को सिद्ध हुए है। ३) समुन्नामितं येन राष्ट्रं न एतत् ..... इस राष्ट्र की एक विशेषता है, जिसके कारण संपूर्ण विश्व उसके सामने नतमस्तक होता है। वह है भारतीय स्त्री का पवित्र शील, विशुद्ध चारित्र्य। शीलवती, चारित्र्यसंपन्न, त्यागी निष्ठावान स्त्री भारत माँ का सबसे विशेष आभूषण ही नहीं अपितु राष्ट्र का मानबिंदु है। आधुनिक भौतिक प्रगति से भी यह आभूषण मूल्यवान है। परंतु पश्चिम विचारधारा का अन्धानुकरण हमे पदभ्रष्ट कर रहा है। हम हमारी तेजस्विता तथा सतीत्व खो रहे है। मन का समाधान हमसे दूर भाग रहा है। छोटे से कारण को लेकर अपने पती को छोडनेवाली स्त्री कहाँ और कसौटी के, संकटो के क्षणों मे भी पति का साथ न छोडनेवाली उसको अच्छे कार्य की प्रेरणा देनेवाली, उसकी माता बनकर रहनेवाली भारतीय स्त्री कहाँ! जगज्जननी के पास हम सेविकाए मांग रही है यही विशुद्ध, पवित्र शील, निष्ठा, त्याग, संयम, स्नेहशील मातृत्व जो हम में, बाधाओं के हिमालय को पार करसकने की जिद तथा क्षमता निर्माण करे। सती अर्थात् केवल जलना ही नही। सतीत्व यह एक असिधाराव्रत है। अविवाहित स्त्री भी सती हो सकती है। सतीत्व की शक्ति प्राप्त करना किसी साधारण स्त्री का काम नही। अग्नि धारण करनेवाला पात्र भी उतना ही समर्थ चाहिये, अन्यथा पात्र भी जल जाएगा। मन की यह शक्ति से जीवन विकसित करने का कार्य केवल भारतीय स्त्री ही कर सकती है। वनवास में पति का साथ देनेवाली सीता, पति के हृदय का, तेजस्विता का स्फुल्लिंग सतत प्रज्वलित रखनेवाली द्रौपदी, मृत्यु के विकराल मुख से अपने पति को जीवित निकालनेवाली सावित्री हमारा आदर्श है। हे माँ हम तेरी लाडली कन्याएँ है ना? सीता का असीम त्याग, द्रौपदी का प्रखर तेज, सावित्री का कठोर निश्चय तथा परम्परागत विरासत तुम हमें प्रदान करोगी यह विश्वास है। सतीत्व का यह आभरण तू तेरी प्रिय कन्याओं को प्रदान कर जो केवल भारत का नही अपितु अखिल विश्व का तारण करेगा। ४) समुत्पादयास्मासु ...... एक ही स्त्री कन्या, बहन, पत्नी तथा माता की भूमिकाएं निभाती है। इस प्रत्येक भूमिका में अपने परिवार को सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा वह देती है। जीवनरथ का सारथ्य कुशलता से करती है। परिवार में कोई दुष्प्रवृत्त, दुराचारी, राष्ट्रद्रोही न बने इसलिये निरंतर सजग रहना उसका सार्वकालिन कर्तव्य है। घर ऐसा स्थान है जहाँ मानव गढता है। उसकी आकांक्षा, कर्तव्यबुद्धि यहाँ पुष्ट होती है। अपने परिवार के घटकों में दुराचार दिखाइ पडा तो उसे नष्ट करने की हिंमत, हे जगजज्जननी हमें दो। क्षणिक सुखों का आकर्षण, उनके पिछे लगने पर घरमें आनेवाला पैसा जिस मार्ग से आ रहा है उसपर नियंत्रण रखने की जारूकता तथा क्षमता हममें निर्माण करो। इस प्रकार पिता, पुत्र, भाई तथा पति इन सबको सन्मार्गपर चलने की प्रेरणा हम दे सके ऐसी दिव्य शक्ति हमें दो। दुराचार से बचाना, सन्मार्गपर चलनेकी प्रेरणा देना यह ठिक है ही लेकिन दुर्वृत्ति निर्माण ही नही होगी यह प्रयास करने की शक्ति दो। समाज के भयसे शायद दुराचार नही होगा, किन्तु मनमें दुष्ट प्रवृत्ति रहेगी, वह भी नष्ट करनी है। ५) सुशीलाः सुधीराः समर्थाः समेताः .... शीलवती, धैर्यशालिनी, शरीर और मन से सुदृढ महिलाएं राष्ट्र निष्ठा के सूत्र से संगठित होने पर तेजस्वी राष्ट्र निर्माण कर सकती है। शारीरिक दुर्बलता होने पर भी आत्मिक तथा मानसिक बल से वह अद्भूत कार्य कर सकती है। इसीलिये आत्मबल बढाने हेतु नित्य दैनंदिन प्रार्थना करने की प्रवृत्ति निर्माण करने के लिये एकत्रित आना, संगठित होना आवश्यक है। महान ध्येय के लिये व्यक्तिगत भेदभाव, तथा वैषम्य और क्षुद्रभाव पर विजय पाकर ध्येयपथपर हमने चुने हुए दिव्य मार्ग पर स्वमार्ग पर, स्वधर्म पर अर्थात् स्वकर्तव्य पर अविचल श्रद्धा रखकर ही हम हमारा ईप्सित प्राप्त कर सकते है। भविष्य में इस तेजस्वी राष्ट्र की कृतार्थ माताए हम बने ऐसा आशीर्वाद, हे जननी तुम हमे दो। हमारी प्रार्थना माँग नही, कृतसंकल्प का उच्चारण और स्वयंप्रयास का निश्चय है। |