देवी अहल्याबाई होलकर
कर्तृत्व का महामेरू
राष्ट्र सेविका समिति ने प्रारंभ काल से ही देवी अहिल्या बाई को कर्तृत्व के आदर्श रूप में माना है। गंगाजल के समान शुद्ध, पुण्यश्लोक, देवी अहिल्या बाई अपने इतिहास का एक स्वर्ण पृष्ठ है। देवी अहिल्या बाई के प्रति अपने जनसामान्य की श्रद्धा, आदर तथा अपनेपन की भावनाओं को प्रतिबिम्बित करने वाली एक लोक कथा बताई जाती है।
वर्षा ऋतु में नर्मदा उफनती हुई बह रही थी। उसकी लहरें होलकर जी के राजगृह की दीवारों से टकरा रहीं थी। गांजा के नशे में धुत्त कुछ लोग आपस में बात कर रहे थे। अचानक उन लोगों में से एक उठकर अपने हाथों से दीवार को सहारा देता हुआ खडा हो गया। अन्य साथी भी उसके बुलाने पर हाथों से दीवार को सहारा देने लगे। वहां खडे अन्य लोगों ने जब पूछा कि वे इस प्रकार क्यों खडे हैं, तब उत्तर आया, ‘क्या इतना भी नही समझते हो? अरे, अपनी माताश्री अंदर है। आओ, तुम लोग भी आ कर माँ को बचाने के काम में जुट जाओ।’
नशे में बेहोश व्यक्ति भी अहिल्या बाई की सुरक्षा के बारें में कितना सजग है यह देखकर ऐतिहासिक सत्यता के अतिरिक्त जनमानस की भावना का दर्शन होता है।
व्यक्तिगत जीवन
देवी अहिल्या बाई का जन्म ई. १७२५ में वर्तमान अहमदनगर जिले के जामखेड तहसील के चौडी नामक छोटे से ग्राम में हुआ। माणको जी शिंदे की यह कन्या जब १२ वर्ष की थी तब एक बार पेशवे महाराज ने शिव मंदिर में शिवजी की पूजा में लीन अहिल्या को देखा । उन्होंने मल्हारराव से इस बालिका को अपनी पुत्रवधू बनाने को कहा और २० मई १७७३ के शुभ दिन अहिल्या बाई का विवाह खांडेराव के साथ संपन्न हुआ। वैभव संपन्न होलकर कुल में गुण संपन्न अहिल्या बाई ने पदार्पण किया। वो सन १७४५ में पुत्र मालेराव एवं सन १७४८ में कन्या मुक्ताबाई की माता बनीं। पुत्र की दुराचारी वृत्ति से व्यथित सूबेदार मल्हारराव ने अहिल्या बाई की योग्यता को परखते हुए उन पर कारोबार का अधिकाधिक दायित्व सौंपना शुरू किया।
अग्निपरीक्षा के क्षण
दि. २४ मार्च १७५४ को कुंभेरी के युद्ध में खंडेराव की मृत्यु हुई। मल्हारराव के आग्रह पर अहल्याबाई ने सती होने का निश्चय त्यागकर प्रजाजनों की माता बनना स्वीकार किया। अहिल्या बाई राजनीति का एक-एक पाठ मल्हारराव से ग्रहण कर पति के चिर वियोग का दु:ख कम करने का प्रयास कर रही थीं। तभी सन १७६१ में उनकी माँ समान ममतामयी सास गौतमाबाई का स्वर्ग वास हुआ और तीन वर्ष के पश्चात ही सन १७६४ में उनके गुरू, मार्ग दर्शक पितृ स्वरूप आधार स्तंभ मल्हारराव भी मृत्य को प्राप्त हो गए।
अब शासन का संपूर्ण दायित्व अहिल्या बाई पर आ गया। उनका पुत्र मालेराव अपने दादा जी जैसा दूरदर्शी, राजनीतिक रूप से कुशल नहीं था। राजकार्य से अधिक रुचि उसको जंगली जानवरों का शिकार करने में थी। पूजा पाठ के लिये आनेवाले पंडितों के जूतों में तथा दान पात्रों में बिच्छू इत्यादि रखना और उनके दंश से पीडित पंडितों की चीखें सुनने में उसे आसुरी आनंद मिलता था। इन हरकतों को देखकर तथा एक दर्जी के दुवर्तन से आशंकित मालेराव द्वारा उसकी क्रूरता से की हुई हत्या के दंडस्वरूप अहिल्या बाई ने अपने घर में पुत्र को माहेश्वर में स्थानबद्ध किया। वहाँ पर ही उसकी मृत्यु हुई।
देवी अहिल्या बाई की कन्या मुक्ताबाई का पति यशवंत फणसे, एक होनहार युवक था। मुक्ताबाई का पुत्र जो जन्म से ही कुछ दुर्बल था, उसकी मृत्यु हुई। उसको उत्तराधिकारी बनाने का देवी अहिल्या बाई का सपना टूट गया। यशवंतराव इस सदमे को सह नहीं सके वो बीमार हो गए और तीन वर्ष के अंदर ही वो भी अपने पुत्र के समान मृत्यु को प्राप्त हुए। मुक्ताबाई ने पति के साथ सती होने का निश्चय किया। अहिल्या बाई अपनी कन्या को इस निश्चय से परावृत्त नहीं कर पाईं। देवी तीन दिन तक अपने कक्ष से बाहर नहीं आईं। नियती को अपनी विजय का आभास हुआ। परंतु लोकमाता अपनी भूमिका नहीं भूल सकी। अहिल्या बाई राजकर्तव्य का कठोरता पूर्वक पालन करते हुए मन:शांति एवं आत्मिक बल के लिये धर्मकृत्य में समय बिताती रहीं।
सदैव प्रतिकूल परिस्थितियों और दुर्भाग्य से संघर्ष करने के कारण शरीर क्षीण होता गया। दि. १३ अगस्त १७९५ श्रावण ९भाद्रपद कृष्ण चतुर्दशी के दिन, वह गंगाजल सम निर्मल जीवन प्रवाह अखंड शिवनाम स्मरण करते हुये शिवप्रवाह में विलीन हुआ।
श्रेष्ठ प्रशासक
देवी अहिल्या बाई ने संस्थशन का कार्यभार संभाला। तब अनेक संकट उनके सामने थे। राज्य के पुराने अधिकारी गंगाधर चंद्रचूड राघोबा दादा के सहयोग से बडी सेना लेकर इंदौर आ धमके। अहिल्या बाई ने अपनी सेना के महिला पथक को सतर्क किया और राघोबा को कहा, ‘मेरे पुरखों नेअपने परिश्रम और पराक्रम से यह राज्य प्राप्त किया है। आक्रमण करने वालों को मुंह तोड उत्तर दिया जाएगा। अहिल्या बाई ने पत्र भेजा 'मेरी महिला सेना पर आपने अगर विजय प्राप्त कर भी ली तो भी आपको कोई यश नहीं मिलेगा लेकिन अगर इसके विपरीत हुआ,आप हार गए तो आपका मजाक बनाया जाएगा, अतः सोच समझकर ही आप युद्ध के लिये आगे बढ़ें |’
राघोबा दादा हालात को समझ गए उन्होंने देवी अहिल्या बाई को संदेश भेजा। ‘मै आपसे लडाई नही अपितु आपके इकलौते पुत्र की मृत्यु पर शोक प्रगट करने आया हूँ।’ अहिल्या बाई ने प्रत्युत्तर भेजा। ‘शोक प्रकट करने के लिए इतनी बडी सेना का क्या काम? आप अकेले पधारें, घर आपका है। आपका स्वागत ह।' राघोबा बाजी हार गए। पालकी में बैठकर आए। इस तरह से देवी ने राज्य को युद्ध के संकट से बचाया।
नारो गणेश नाम के अधिकारी की प्रमाणिकता पर देवी अहिल्या बाई को संदेह था। इसलिए उसे बंदी बनाया। तुकोजी होलकर ने देवी अहिल्या बाई को पूछे बिना ही उसे रिहा कर दिया और पूर्व पद पर बिठा दिया। लेकिन अहिल्या बाई अपने प्रशासन में यह परिवर्तन सहन नहीं करेगी इस भय से वह बहुत बेचैन हुआ। इसलिए महादजी शिंदे के पास जाकर अहिल्या बाई को समझाने की प्रार्थना की। महादजी ने कहा, ‘श्रीमंत पेशवे, मुगल, भोसले इनमें किसी को कुछ समझाना है तो समझा सकता हूँ। किन्तु अहिल्या बाई के बारें में यह असंभव है। क्योंकि वह बहुत सोच समझकर निर्णय लेती है अत: उसे बदलना कठिन है।
देवी अहिल्या बाई के प्रशासन को दिया गया यह एक मौलिक प्रमाणपत्र ही था।
सेनापति तुकोजी, सेना के व्यय के लिये धन की माँग करता था। सेना खर्च के लिए राज्य कोष पर निर्भर नही रहना चाहिए ऐसी उनकी स्पष्ट विचारधारा थी। आवश्यक मात्रा में धन जरूर देती थीं। परंतु पहले दिये गए धन का पूरा हिसाब प्राप्त होने के उपरान्त ही अगली किश्त देने की उनकी नीति थी।
वीरता का परिचय
देवी अहिल्या बाई ने बार बार अपने अधिकारी नही बदले परंतु किसी का एकाधिकार न हो इसके विषय में वो सतर्क रहती थी। सेना में भर्ती के बारे में वो ध्यान देती थी। कर्नल बॉयड इंदौर में रहकर संस्थान की सेना को प्रमाणिकता से प्रशिक्षित करने के लिये लिखित रूप से वचनबद्ध था। अपराधी चाहे कितना भी बडा हो, उसको क्षमा नहीं दी जाती थी। निर्धारित राशि से अधिक धन किसी से नहीं लिया जाता था। देवी अहिल्या बाई बार- बार युद्ध करने के पक्ष में नहीं रहती थीं। एक बार चंद्रावत से युद्ध उसके होलकर शासन से किये हुए विद्रोह के कारण हुआ। अहिल्या बाई को सामान्य महिला समझकर उसने बडी भूल की। अहिल्या बाई ने सेनानी शरीफभाई को बडी सेना के साथ भेजा और स्वयं युद्ध का संचालन किया। होलकर सेना की विजय हुई। सौभाग्य सिंह को तोप के मूँह पर बाँधकर उडा दिया गया। उससे सारे देवी के शरण में आये।
न्याय व्यवस्था
देवी अहिल्या बाई की निष्पक्ष न्याय व्यवस्था निश्चित ही अनुकरणीय एवं अभिमान करने योग्य है। महतपुर के राजपूतों द्वारा अपनी शिकायत प्रस्तुत किए जाने पर देवी अहिल्या बाई ने संबंधित कर्मचारियों को बुलाया और ११ सूत्रीय पत्रक दिया जो उनकी न्याय बुद्धि का द्योतक है।
रघुनाथ सिंह निवाडी नामक एक रसोइए के मरने के बाद उसे निपुत्र समझकर उसकी ४२६ रू. ३ आने ६ पाई की संपत्ति राजकोष में जमा कर दी गई। परंतु उनका एक पुत्र है ऐसा ज्ञात होने पर वह राशि तुरंत उस पुत्र को वापस देने का आदेश उन्होंने दिया।
उनके राज्य में न्याय पाना बहुत ही सरल था। नागरिकों की उनके न्याय पर इतनी श्रद्धा थी कि उनकी आज्ञा न मानना वे पाप समझते थे। श्रीमंत पेशवे द्वारा भी अगर किसी पर अन्याय हुआ तो देवी स्वयं उनसे बात करके न्याय दिलवा देती थीं।
लुटेरे भील बने शूर सैनिक उन दिनों भीलोंका उपद्रव बढा था। उनको कुछ सामंतो का आश्रय था। देवी अहिल्या बाई ने उनके मुखिया को दरबार में बुलाया और लूटमार करके यात्रियों को परेशान करके का कारण पूछा-‘सीधे रास्ते से जीने का कोई साधन न होने के कारण यात्रियों को लूटना पडता है' यह जवाब सुनकर उन्हें शस्त्र, वेतन और इज्जत देने की इच्छा देवी अहिल्या बाई ने प्रगट की और भीलों पर यात्रियों की सुरक्षाकी जिम्मेदारी सौंपी गई। यात्रियों से एक कौंडी कर के रूप में लेने की व्यवस्था शुरू की गयी, जो ‘भील कौंडी’ नाम से प्रसिद्ध है।
डाक व्यवस्था
ईसवी १७८३ में अहिल्या बाई ने महेश्वर से पुणे तक डाक व्यवस्था चलाने का दायित्व पद्मसी नेन्सी नामक कंपनी को सौंपा था। डाक लाने-ले जाने के लिये २० जोडियां थीं। डाक पहुँचने में विलंब होने पर प्रतिदिन उत्तरोत्तर राशि में कटौती होती थी। कुछ हानि होने पर कंपनी से क्षतिपूर्ति ली जाती थी।
अपमानों का चिन्ह मिटाया
तीर्थयात्रा करते समय देवी अहिल्या बाई ने जब भग्न मंदिरों के अवशेष देखे तो उनका मन पीडा से व्यथित हुआ। इन मंदिरों में फिर से पूजन, धार्मिक ग्रंथों का पठन हो इसलिये योजना बनाई। राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से बद्री नारायण से लेकर रामेश्वरम तक व द्वारका से लेकर भुवनेश्वर तक अनेक मंदिरो का पुन: निर्माण किया। धर्मस्थल शासनावलंबी न हों स्वावलंबी हों इसलिए उन्होंने उनको भूखंड दान दिये। इस प्रकार के धार्मिक कार्य के लिये संपूर्ण व्यय देवी अहिल्या बाई ने अपनी व्यक्तिगत संपत्ति से ही किया। व्यक्तिगत संपत्ति का हिसाब वे बराबर रखती थीं। व्यक्तिगत धर्म से अधिक महत्त्व राष्ट्र धर्म को देती थीं। उन्होंने धर्म क्षेत्र को राजाश्रय दिया। परंतु राष्ट्रीय स्वरूप भी प्रदान किया। राजनीतिक प्रदेश भिन्न होंगे परंतु उनको सांस्कृतिक एकात्म रूप दिया अहिल्या बाई ने। उनके मानव धर्म का लाभ पशु-पक्षियों को भी मिला। अनेक विद्वानों को राजाश्रय दिया। गंगाजल की कावड निर्धारित स्थान पर और निर्धारित समय पर पहुँचाने की व्यवस्था स्थायी रूप से की। बुनकर उद्योग को प्रोत्साहन स्वरूप अन्न, वस्त्र, निवारा उद्योग के लिये धन एवं तैयार कपडे बेचने की व्यवस्था की। महेश्वर को राजधानी बनाते समय वहाँ के ग्रामजनों का पूर्ण सहयोग लिया। अपनी राजधानी सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध बनाने के प्रयास किए। राजकीय व धार्मिक दृष्टि से देवी अहिल्या बाई का जीवन अतुलनीय था।
जयजयतु अहिल्या माता
हे कर्मयोगिनी । जयतु अहिल्या माता। जयजयतु अहिल्या माता ।
युगो युगों तक अमर रहेगी यश कीर्ति की गाथा। जय जयतु अहिल्या माता ।।धृ।।
दीप ज्योति सम तिल तिल जलकर, स्वार्थ भावना परे त्यागकर
पूज्य बन सकीं सतत प्रवाहित, उज्जवल जीवन सरिता ।।१।।
कर्म भविष्य की प्रबल धारणा, कभी किसी से की न याचना
यज्ञ रूप जीवन ज्वाला में प्रखर हुई तब आभा ।। २।।
जीवन भर स्वजनों का सह दु:ख, कर्तव्यों से हुई न परमुख
नीलकंठ सम गरल पान कर क्षण-क्षण जीवन बीता ।।३।।
अन्न क्षेत्र धर्मात्म चलाए मंदिर घाट कुएँ खुदवाए
परमार्थ- सुख जीवन को सार्थक दिव्य चरित्र की गाथा ।।४।।